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मेरे चेहरे से ग़म आश्कारा नहीं | शाही शायरी
mere chehre se gham aashkara nahin

ग़ज़ल

मेरे चेहरे से ग़म आश्कारा नहीं

फ़ना निज़ामी कानपुरी

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मेरे चेहरे से ग़म आश्कारा नहीं
ये न समझो कि में ग़म का मारा नहीं

चश्म-ए-साक़ी पे भी हक़ हमारा नहीं
अब ब-जुज़ तर्क-ए-मय कोई चारा नहीं

बहर-ए-ग़म में किसी का सहारा नहीं
ये कोई आसमाँ का सितारा नहीं

डूबने को तो डूबे मगर नाज़ है
अहल-ए-साहिल को हम ने पुकारा नहीं

ग़ुंचा-ओ-गुल को चौंका गई है ख़िज़ाँ
फ़स्ल-ए-गुल ने चमन को सँवारा नहीं

ग़ैर के साथ किस तरह देखूँ तुझे
अपनी क़ुर्बत भी मुझ को गवारा नहीं

यूँ दिखाता है आँखें हमें बाग़बाँ
जैसे गुलशन पे कुछ हक़ हमारा नहीं

ज़िक्र-ए-साक़ी ही काफ़ी नहीं ऐ 'फ़ना'
बे-पिए मय-कदे में गुज़ारा नहीं