EN اردو
मेरे अश्कों की गई थी रेल वीराने पे क्या गुज़रा | शाही शायरी
mere ashkon ki gai thi rail virane pe kya guzra

ग़ज़ल

मेरे अश्कों की गई थी रेल वीराने पे क्या गुज़रा

वली उज़लत

;

मेरे अश्कों की गई थी रेल वीराने पे क्या गुज़रा
ख़बर नीं हज़रत-ए-मजनूँ के काशाने पे क्या गुज़रा

इन आँखों को दिया था दिल वो दीवाने पे क्या गुज़रा
पड़ा था बात बद-मस्तों के पैमाने पे क्या गुज़रा

मैं और ज़ुन्नार है तस्बीह-ए-सद-दाने पे क्या गुज़रा
मिरे काफ़िर हुए सेती ख़ुदा जाने पे क्या गुज़रा

दिया दिल वस्ल लेने को बिगाड़ा ग़ैर ने सौदा
बुका इस ग़म के हाथों में कि बेगाने पे क्या गुज़रा

वो ज़ुल्फ़ें बस रक़ीबों के दिलों की सख़्त गिर्हें थीं
कहो मेरे दिल-ए-सद-चाक के शाने पे क्या गुज़रा

न पूछा भूल कर भी फ़स्ल-ए-गुल में शीशा-ख़ू तू ने
कि इस पथराव में तिफ़्लों के दीवाने पे क्या गुज़रा

फिरे आते हैं मस्ताँ दर-गह-ए-पीर-ए-मुग़ाँ सेती
किया था ख़ाना वीराँ शैख़ मयख़ाने पे क्या गुज़रा

ढकी थी आतिश-ए-गुल ता-सर-ए-दीवार-ए-बाग़ अब के
ख़बर 'उज़लत' को नीं बुलबुल के ख़स-ख़ाना पे क्या गुज़रा