मेरा वजूद उस को गवारा नहीं रहा
यूँ राह-ए-ज़िंदगी में सहारा नहीं रहा
फ़ुर्क़त में उस की सब्र-ओ-तहम्मुल था इश्क़ में
वो आ गया तो ज़ब्त का यारा नहीं रहा
हर लहज़ा शौक़-ए-हुस्न में ये बे-क़रार है
अब मेरा दिल के साथ गुज़ारा नहीं रहा
मैं इज़्तिराब-ए-इश्क़ में हद से गुज़र गया
ऐसा मरज़ बढ़ा है कि चारा नहीं रहा
महफ़िल से मैं उठा तो अजब तब्सिरा हुआ
कहने लगा कि अब ये हमारा नहीं रहा
हर-चंद बे-रुख़ी में वो हद से गुज़र गया
कैसे कहूँ कि वो मुझे प्यारा नहीं रहा
सोज़-ए-निहाँ की आग भड़कती है इस क़दर
यूँ लग रहा है इश्क़ का यारा नहीं रहा
मैं जल के राख हो गया हूँ सोज़-ए-इश्क़ से
मैं ज़िंदगी में मिस्ल-ए-शरारा नहीं रहा
जब दर्द-ए-दिल नहीं रहा तो यूँ लगा मुझे
गोया कि ज़िंदगी का सहारा नहीं रहा
परवाज़-ए-फ़िक्र-ए-नौ नहीं पहुँची जहाँ तलक
ऐसा फ़लक में कोई सितारा नहीं रहा
जब मौत आ गई तो नई ज़िंदगी मिली
अब बहर-ए-ज़िंदगी का किनारा नहीं रहा
ग़ज़ल
मेरा वजूद उस को गवारा नहीं रहा
ज़ाहिद चौधरी