मेरा जुनूँ ही अस्ल में सहरा-परस्त था
वर्ना बहार का भी यहाँ बंदोबस्त था
आया शुऊ'र-ए-ज़ीस्त तो इफ़्शा हुआ ये राज़
तेरे कमाल-ए-फ़न की मैं पहली शिकस्त था
औरों ने कर लिए थे अंधेरों से फ़ैसले
इक मैं ही सारे शहर में सूरज-ब-दस्त था
इक चीख़ते सुकूत ने चौंका दिया मुझे
मैं वर्ना अपने हाल में मुद्दत से मस्त था
आईना जब दिखाया तो ये राज़ भी खुला
जितना भी जो बुलंद था उतना ही पस्त था
तख़्लीक़-ए-कुल के लम्हा-ए-अव्वल में ऐ 'असर'
मैं ज़िंदगी की पहली हुमक पहली जस्त था
ग़ज़ल
मेरा जुनूँ ही अस्ल में सहरा-परस्त था
इज़हार असर