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में आशिक़ हूँ मुझे मक़्तल में अपना नाम करना है | शाही शायरी
mein aashiq hun mujhe maqtal mein apna nam karna hai

ग़ज़ल

में आशिक़ हूँ मुझे मक़्तल में अपना नाम करना है

जमीला ख़ुदा बख़्श

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में आशिक़ हूँ मुझे मक़्तल में अपना नाम करना है
डरेगा ख़ंजर-ए-क़ातिल से क्या वो जिस को मरना है

मदद कर इश्क़-ए-सादिक़ जज़्ब-ए-कामिल मुझ से महज़ूँ की
शब-ए-ग़म नाला करना है और इस जी से गुज़रना है

न फेंको संग-ए-ख़ारा पर हिफ़ाज़त चाहिए इस की
कि रख कर मिरअत-ए-दिल रू-ब-रू तुम को सँवरना है

ये जाम-ए-दीदा-ए-हसरत भरूँगा अश्क-ए-ख़ूनी से
मय-ए-गुलगूँ तुझे पीर-ए-मुग़ाँ साग़र में भरना है

ठहर जा बुलबुल-ए-ग़मगीं कहाँ तक ज़ारी-ओ-शेवन
कि मुर्ग़-ए-बोसतान-ए-इश्क़ को भी नाला करना है

सरिश्क-ए-चश्म-ए-पुर-नम की रवानी से परेशाँ हूँ
जुनूँ क्या दीदा-ए-हसरत हमारा कोई झरना है

'जमीला' सफ़्हा-ए-महताब पर लहरा गए काले
सितम इन गेसुओं का दोश पर उन के बिखरना है