मज़े इश्क़ के कुछ वही जानते हैं
कि जो मौत को ज़िंदगी जानते हैं
शब-ए-वस्ल लीं उन की इतनी बलाएँ
कि हमदम मिरे हाथ ही जानते हैं
न हो दिल तो क्या लुत्फ़-ए-आज़ार-ओ-राहत
बराबर ख़ुशी ना-ख़ुशी जानते हैं
जो है मेरे दिल में उन्हीं को ख़बर है
जो मैं जानता हूँ वही जानते हैं
पड़ा हूँ सर-ए-बज़्म मैं दम चुराए
मगर वो इसे बे-ख़ुदी जानते हैं
कहाँ क़द्र-ए-हम-जिंस हम-जिंस को है
फ़रिश्तों को भी आदमी जानते हैं
कहूँ हाल-ए-दिल तो कहें उस से हासिल
सभी को ख़बर है सभी जानते हैं
वो नादान अंजान भोले हैं ऐसे
कि सब शेवा-ए-दुश्मनी जानते हैं
नहीं जानते इस का अंजाम क्या है
वो मरना मेरा दिल-लगी जानते हैं
समझता है तू 'दाग़' को रिंद ज़ाहिद
मगर रिंद उस को वली जानते हैं
ग़ज़ल
मज़े इश्क़ के कुछ वही जानते हैं
दाग़ देहलवी