मौसम-ए-गुल ये तिरी ज़र्द सहाफ़त कैसी
फूल मा'सूम हैं फूलों से सियासत कैसी
उस ने दलदल के क़रीं छोड़ दी उँगली मेरी
ख़िज़्र कहलाता है करता है क़यादत कैसी
जैसे इस बार हवाओं में लगी हो दीमक
हो रही है मिरी साँसों की किफ़ालत कैसी
मैं जहाँ भी रहूँ ये ढूँड निकालेगी मुझे
जानता हूँ कि है मिट्टी की बसारत कैसी
छिन गई मुझ से हर इक चीज़ अलिफ़ से या तक
मेरे माज़ी ने ये लिक्खी थी वसिय्यत कैसी
गर कोई क़त्ल नहीं करता है अंदर से मुझे
फिर मिरी पलकों पे अश्कों की ये मय्यत कैसी
संग हाथों में लिए सोच रहा हूँ 'ख़ुर्शीद'
आइने से ये निकल आई रक़ाबत कैसी

ग़ज़ल
मौसम-ए-गुल ये तिरी ज़र्द सहाफ़त कैसी
ख़ुर्शीद अहमद मलिक