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मौक़ा-ए-यास कभी तेरी नज़र ने न दिया | शाही शायरी
mauqa-e-yas kabhi teri nazar ne na diya

ग़ज़ल

मौक़ा-ए-यास कभी तेरी नज़र ने न दिया

परवेज़ शाहिदी

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मौक़ा-ए-यास कभी तेरी नज़र ने न दिया
शर्त जीने की लगा दी मुझे मरने न दिया

कम से कम मैं ग़म-ए-दुनिया को भुला सकता था
पर तिरी याद ने ये काम भी करने न दिया

तेरी ग़म-ख़्वार निगाहों के तसद्दुक़ कि मुझे
ग़म-ए-हस्ती की बुलंदी से उतरने न दिया

वो तिरी सुर्ख़ी-ए-आरिज़ कि क़रीब आ न सकी
रंग जिस फ़िक्र को भी ख़ून-ए-जिगर ने न दिया

हुस्न-ए-हम-दर्द तिरा हम-सफ़र-ए-शौक़ रहा
मुझ को तन्हा किसी मंज़िल से गुज़रने न दिया

कितनी ख़ुश-ज़ौक़ है तेरी निगह-ए-बादा-फ़रोश
ख़ाली रहने न दिया जाम को भरने न दिया