मतलब की कह सुनाऊँ किसी बात में लगा
रहता हूँ रोज़-ओ-शब में इसी घात में लगा
महफ़िल में मुज़्तरिब सा जू देखा मुझे तो बस
कहने किसी से कुछ वो इशारात में लगा
होते ही वस्ल कुछ ख़फ़क़ाँ सा उसे हुआ
धड़का ये बे-तरह का मुलाक़ात में लगा
कल रात हम से उस ने तो पूछी न बात भी
ग़ैरों की याँ तलक वो मुदारात में लगा
आया है अब्र घिर के अब आने में साक़िया
तू भी न देर मौसम-ए-बरसात में लगा
मस्जिद में सर-ब-सज्दा हुए हम तो क्या कि है
कम-बख़्त दिल तो बज़्म-ए-ख़राबात में लगा
घट्टे पे अपने माथे कि नाज़ाँ जो अब हुए
ये दाग़ शैख़-जी के करामात में लगा
गर मुझ को कारख़ाना-ए-तक़दीर में हो दख़्ल
रोज़-ए-क़याम वस्ल की दूँ रात में लगा
पर्वाज़ ता-ब-अर्श अगर तू ने की तो क्या
सय्याद-ए-मर्ग है तिरी नित घात में लगा
वक़्त-ए-अख़ीर आए तिरे काम जो दिला
अब ध्यान-ज्ञान अपना उस औक़ात में लगा
'जुरअत' हमारी बात पे आया न याँ तू आह
क्या जानिए किसी की वो किस बात में लगा
ग़ज़ल
मतलब की कह सुनाऊँ किसी बात में लगा
जुरअत क़लंदर बख़्श