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मता-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र रहा हूँ | शाही शायरी
mata-e-fikr-o-nazar raha hun

ग़ज़ल

मता-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र रहा हूँ

अय्यूब साबिर

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मता-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र रहा हूँ
मिसाल-ए-ख़ुशबू बिखर रहा हूँ

मैं ज़िंदगानी के मारके में
हमेशा ज़ेर-ओ-ज़बर रहा हूँ

शफ़क़ हूँ सूरज हूँ रौशनी हूँ
सलीब-ए-ग़म पर उभर रहा हूँ

सजाओ रस्ते बिछाओ काँटे
कि पा-बरहना गुज़र रहा हूँ

न ज़िंदगी है न मौत है ये
न जी रहा हूँ न मर रहा हूँ

जो मेरे अंदर छुपा हुआ है
उस आदमी से भी डर रहा हूँ

वो मेरे अपने ही ग़म थे 'साबिर'
कि जिन से मैं बे-ख़बर रहा हूँ