मता-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र रहा हूँ
मिसाल-ए-ख़ुशबू बिखर रहा हूँ
मैं ज़िंदगानी के मारके में
हमेशा ज़ेर-ओ-ज़बर रहा हूँ
शफ़क़ हूँ सूरज हूँ रौशनी हूँ
सलीब-ए-ग़म पर उभर रहा हूँ
सजाओ रस्ते बिछाओ काँटे
कि पा-बरहना गुज़र रहा हूँ
न ज़िंदगी है न मौत है ये
न जी रहा हूँ न मर रहा हूँ
जो मेरे अंदर छुपा हुआ है
उस आदमी से भी डर रहा हूँ
वो मेरे अपने ही ग़म थे 'साबिर'
कि जिन से मैं बे-ख़बर रहा हूँ
ग़ज़ल
मता-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र रहा हूँ
अय्यूब साबिर