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मत मर्दुमक-ए-दीदा में समझो ये निगाहें | शाही शायरी
mat mardumak-e-dida mein samjho ye nigahen

ग़ज़ल

मत मर्दुमक-ए-दीदा में समझो ये निगाहें

मिर्ज़ा ग़ालिब

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मत मर्दुमक-ए-दीदा में समझो ये निगाहें
हैं जम्अ सुवैदा-ए-दिल-ए-चश्म में आहें

किस दिल पे है अज़्म-ए-सफ़-ए-मिज़्गान-ए-ख़ुद-आरा
आईने के पायाब से उतरी हैं सिपाहें

दैर-ओ-हरम आईना-ए-तकरार-ए-तमन्ना
वामांदगी-ए-शौक़ तराशे है पनाहें

जूँ मर्दुमक-ए-चश्म से हों जम्अ' निगाहें
ख़्वाबीदा ब-हैरत-कदा-ए-दाग़ हैं आहें

फिर हल्क़ा-ए-काकुल में पड़ीं दीद की राहें
जूँ दूद फ़राहम हुईं रौज़न में निगाहें

पाया सर-ए-हर-ज़र्रा जिगर-गोशा-ए-वहशत
हैं दाग़ से मामूर शक़ाइक़ की कुलाहें

ये मतला 'असद' जौहर-ए-अफ़्सून-ए-सुख़न हो
गर अर्ज़-ए-तपाक-ए-जिगर-ए-सोख़्ता चाहें

हैरत-कश-ए-यक-जल्वा-ए-मअनी हैं निगाहें
खींचूँ हूँ सुवैदा-ए-दिल-ए-चश्म से आहें