मत बैठ वक़्त-ए-नज़अ' तू याँ ऐ हसीं बहुत
उल्फ़त न कर तू आह दम-ए-वापसीं बहुत
ये सच करे है नाज़ हर इक नाज़नीं बहुत
आशिक़-कुशी का चाव प देखा यहीं बहुत
होती है उस के देखते हालत मिरी तग़ीर
हर चंद मैं सँभालूँ हूँ अपने तईं बहुत
ये कौन जाने झूट है या सच व-लेक आज
उस कम-सुख़न ने प्यार की बातें तो कीं बहुत
उश्शाक़ ही को ग़म नहीं मा'शूक़ को भी है
लेकिन ये फ़र्क़ है कहीं थोड़ा कहीं बहुत
ग़ज़ल
मत बैठ वक़्त-ए-नज़अ' तू याँ ऐ हसीं बहुत
मीर शेर अली अफ़्सोस