मसरूफ़ हम भी अंजुमन-आराइयों में थे 
घर जल रहा था लोग तमाशाइयों में थे 
कितनी जराहतें पस-ए-एहसास-ए-दर्द थीं 
कितने ही ज़ख़्म रूह की गहराइयों में थे 
कुछ ख़्वाब थे जो एक से मंज़र का अक्स थे! 
कुछ शोबदे भी उस की मसीहाइयों में थे 
तपती ज़मीं पे उड़ते बगूलों का रक़्स था 
सात आसमान क़हर की पुरवाइयों में थे 
इस तरह ख़ैर ओ शर में कभी रन पड़ा न था 
कितने ही हादसे मिरी पस्पाइयों में थे 
ख़िल्क़त पे सादगी का मैं इल्ज़ाम क्या धरूँ 
जितने शिगाफ़ थे मिरी दानाइयों में थे 
आशोब-ए-ज़ात से निकल आया था इक जहाँ 
हम क़ैद अपनी क़ाफ़िया-पैमाइयों में थे
        ग़ज़ल
मसरूफ़ हम भी अंजुमन-आराइयों में थे
असरार ज़ैदी

