मसनद-ए-ग़म पे जच रहा हूँ मैं
अपना सीना खुरच रहा हूँ मैं
ऐ सगान-ए-गुरसना-ए-अय्याम
जूँ ग़िज़ा तुम को पच रहा हूँ मैं
अन्दरून-ए-हिसार-ए-ख़ामोशी
शोर की तरह मच रहा हूँ मैं
वक़्त का ख़ून-ए-राएगाँ हूँ मगर
ख़ुश्क लम्हों में रच रहा हूँ मैं
ख़ून में तर-ब-तर रहा मिरा नाम
हर ज़माने का सच रहा हूँ मैं
हाल ये है कि अपनी हालत पर
ग़ौर करने से बच रहा हूँ मैं
ग़ज़ल
मसनद-ए-ग़म पे जच रहा हूँ मैं
जौन एलिया