मस्जिद के ज़ेर-ए-साया ख़राबात चाहिए
भौं पास आँख क़िबला-ए-हाजात चाहिए
आशिक़ हुए हैं आप भी एक और शख़्स पर
आख़िर सितम की कुछ तो मुकाफ़ात चाहिए
दे दाद ऐ फ़लक दिल-ए-हसरत-परस्त की
हाँ कुछ न कुछ तलाफ़ी-ए-माफ़ात चाहिए
सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी
तक़रीब कुछ तो बहर-ए-मुलाक़ात चाहिए
मय से ग़रज़ नशात है किस रू-सियाह को
इक-गूना बे-ख़ुदी मुझे दिन रात चाहिए
नश्व-ओ-नुमा है अस्ल से 'ग़ालिब' फ़ुरू को
ख़ामोशी ही से निकले है जो बात चाहिए
है रंग-ए-लाला-ओ-गुल-ओ-नसरीं जुदा जुदा
हर रंग में बहार का इसबात चाहिए
सर पा-ए-ख़ुम पे चाहिए हंगाम-ए-बे-ख़ुदी
रू सू-ए-क़िबला वक़्त-ए-मुनाजात चाहिए
यानी ब-हस्ब-ए-गर्दिश-ए-पैमाना-ए-सिफ़ात
आरिफ़ हमेशा मस्त-ए-मय-ए-ज़ात चाहिए
ग़ज़ल
मस्जिद के ज़ेर-ए-साया ख़राबात चाहिए
मिर्ज़ा ग़ालिब