मशहूर चमन में तिरी गुल पैरहनी है 
क़ुर्बां तिरे हर उज़्व पे नाज़ुक-बदनी है 
उर्यानी-ए-आशुफ़्ता कहाँ जाए पस-अज़-मर्ग 
कुश्ता है तिरा और यही बे-कफ़नी है 
समझे है न परवाना न थामे है ज़बाँ शम्अ' 
वो सोख़्तनी है तो ये गर्दन-ज़दनी है 
लेता ही निकलता है मिरा लख़्त-ए-जिगर अश्क 
आँसू नहीं गोया कि ये हीरे की कनी है 
बुलबुल की कफ़-ए-ख़ाक भी अब होगी परेशाँ 
जामे का तिरे रंग सितमगर चिमनी है 
कुछ तो उभर ऐ सूरत-ए-शीरीं कि दिखाऊँ 
फ़रहाद के ज़िम्मे भी अजब कोह-कनी है 
हों गर्म-ए-सफ़र शाम-ए-ग़रीबाँ से ख़ुशी हों 
ऐ सुब्ह-ए-वतन तू तो मुझे बे-वतनी है 
हर-चंद गदा हूँ मैं तिरे इश्क़ में लेकिन 
इन बुल-हवसों में कोई मुझ सा भी ग़नी है 
हर अश्क मिरा है दुर-ए-शहवार से बेहतर 
हर लख़्त-ए-जिगर रश्क-ए-अक़ीक़-ए-यमनी है 
बिगड़ी है निपट 'मीर' तपिश और जिगर में 
शायद कि मिरे जी ही पर अब आन बनी है
        ग़ज़ल
मशहूर चमन में तिरी गुल पैरहनी है
मीर तक़ी मीर

