मशाम-ए-बुलबुल में रश्क-ए-गुल की हुनूज़ बू भी नहीं गई है
अभी वो नाम-ए-ख़ुदा है ग़ुंचा नसीम छू भी नहीं गई है
न इश्क़ सुरमे का ने मिसी का न शौक़ ग़म्ज़े का ने हँसी का
गुमाँ हो गर तुम को आरसी का सो रू-ब-रू भी नहीं गई है
बला को उस की ख़बर है कहते हैं किस को मा'शूक़ क्या है आशिक़
हुनूज़ कानों में उस परी के ये गुफ़्तुगू भी नहीं गई है
यक़ीं नहीं मुझ को क़ैस-ए-गिर्यां के हाल से उस को आगही हो
निकल के मतलब से अपने लैला किनार-ए-जू भी नहीं गई है
'शहीदी' इतनी गुमाँ-परस्ती नशे में सब भूल बैठे हस्ती
हुई है उस से ही तुम को मस्ती जो ता-गुलू भी नहीं गई है
ग़ज़ल
मशाम-ए-बुलबुल में रश्क-ए-गुल की हुनूज़ बू भी नहीं गई है
करामत अली शहीदी