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मरते मरते रौशनी का ख़्वाब तो पूरा हुआ | शाही शायरी
marte marte raushni ka KHwab to pura hua

ग़ज़ल

मरते मरते रौशनी का ख़्वाब तो पूरा हुआ

तौसीफ़ तबस्सुम

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मरते मरते रौशनी का ख़्वाब तो पूरा हुआ
बह गया सारा लहू तन का तो दिन आधा हुआ

रास्तों पर पेड़ जब देखे तो आँसू आ गए
हर शजर साया था तेरी याद से मिलता हुआ

सुब्ह से पहले बदन की धूप में नींद आ गई
और कितना जागता मैं रात का जागा हुआ

शहर-ए-दिल में इस तरह हर ग़म ने पहचाना मुझे
जैसे मेरा नाम था दीवार पर लिक्खा हुआ

ज़ीस्त के पुर-शोर साहिल पर गए लम्हों की याद
जिस तरह साया हो सत्ह-ए-आब पर ठहरा हुआ

ग़म हुए वो आश्ना चेहरों के आईने कहाँ
शहर है सारे का सारा धुँद में लिपटा हुआ

वस्ल के बादल ज़रा थम हुस्न-ए-क़ामत देख लूँ
प्यास का सहरा तो है ता-चश्म-ए-तर फैला हुआ

मुझ को आशोब-ए-हिकायत जान लेने की हवस
और ये तेरा बदन इक दास्ताँ कहता हुआ

ग़म जो मिलता है तो ऐ तौसीफ़ सीने से लगाओ
किस ने लौटाया है यूँ मेहमान घर आया हुआ