मरते मरते रौशनी का ख़्वाब तो पूरा हुआ
बह गया सारा लहू तन का तो दिन आधा हुआ
रास्तों पर पेड़ जब देखे तो आँसू आ गए
हर शजर साया था तेरी याद से मिलता हुआ
सुब्ह से पहले बदन की धूप में नींद आ गई
और कितना जागता मैं रात का जागा हुआ
शहर-ए-दिल में इस तरह हर ग़म ने पहचाना मुझे
जैसे मेरा नाम था दीवार पर लिक्खा हुआ
ज़ीस्त के पुर-शोर साहिल पर गए लम्हों की याद
जिस तरह साया हो सत्ह-ए-आब पर ठहरा हुआ
ग़म हुए वो आश्ना चेहरों के आईने कहाँ
शहर है सारे का सारा धुँद में लिपटा हुआ
वस्ल के बादल ज़रा थम हुस्न-ए-क़ामत देख लूँ
प्यास का सहरा तो है ता-चश्म-ए-तर फैला हुआ
मुझ को आशोब-ए-हिकायत जान लेने की हवस
और ये तेरा बदन इक दास्ताँ कहता हुआ
ग़म जो मिलता है तो ऐ तौसीफ़ सीने से लगाओ
किस ने लौटाया है यूँ मेहमान घर आया हुआ

ग़ज़ल
मरते मरते रौशनी का ख़्वाब तो पूरा हुआ
तौसीफ़ तबस्सुम