EN اردو
मरने वाले ख़ूब छूटे गर्दिश-ए-अय्याम से | शाही शायरी
marne wale KHub chhuTe gardish-e-ayyam se

ग़ज़ल

मरने वाले ख़ूब छूटे गर्दिश-ए-अय्याम से

जलील मानिकपूरी

;

मरने वाले ख़ूब छूटे गर्दिश-ए-अय्याम से
सो रहे हैं पाँव फैलाए हुए आराम से

और तो मतलब नहीं कुछ हम को दौर-ए-जाम से
हाँ एवज़ लेता है साक़ी गर्दिश-ए-अय्याम से

गरचे तर्क-ए-आश्नाई को ज़माना हो गया
लेकिन अब तक चौंक उठते हैं वो मेरे नाम से

इश्तियाक़-ए-मय-कशी कुछ मय-कशी से कम नहीं
हम तो साक़ी मस्त हो जाते हैं ख़ाली जाम से

मय-कदे का राज़ पर्दे ही में रहना ख़ूब था
देख साक़ी शीशा कुछ कहता है थक कर जाम से

ज़ुल्फ़-ए-सुम्बुल निकहत-ए-गुल मौज-ए-सब्ज़ा मौज-ए-आब
बाग़ में कोई जगह ख़ाली न देखी दाम से

हम फ़क़ीर-ए-मय-कदा साक़ी हमें क्या चाहिए
है वही काफ़ी छलक जाती है जितनी जाम से

बे-निशाँ तुझ को समझ कर सब्र आ जाता मुझे
पर ये मुश्किल है कि मैं वाक़िफ़ हूँ तेरे नाम से

क्या ख़ुदा की शान है जिन का वज़ीफ़ा था 'जलील'
आज वो कहते हैं मैं वाक़िफ़ नहीं इस नाम से