मर्ग-ए-एहसास बिल-यक़ीन आख़िर
आदमी बन गया मशीन आख़िर
एक इक कर के हो गए रुख़्सत
ख़ाना-ए-दिल के सब मकीन आख़िर
घर भी मदफ़न बने हैं गलियाँ भी
तंग होने लगी ज़मीन आख़िर
तेरी चौखट से रह सके न अलग
संग-दर हो गई जबीन आख़िर
पा सके ख़ूँ-बहा दियत न क़िसास
ज़िंदगी के लवाहिक़ीन आख़िर
इश्क़ तस्ख़ीर-ए-काएनात के बा'द
हो रहा दिल में ही मकीन आख़िर
खेल तो ख़त्म हो चुका है 'रबाब'
क्यूँ रुके हैं तमाशबीन आख़िर
ग़ज़ल
मर्ग-ए-एहसास बिल-यक़ीन आख़िर
ज़फ़र रबाब