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मर्ग-ए-एहसास बिल-यक़ीन आख़िर | शाही शायरी
marg-e-ehsas bil-yaqin aaKHir

ग़ज़ल

मर्ग-ए-एहसास बिल-यक़ीन आख़िर

ज़फ़र रबाब

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मर्ग-ए-एहसास बिल-यक़ीन आख़िर
आदमी बन गया मशीन आख़िर

एक इक कर के हो गए रुख़्सत
ख़ाना-ए-दिल के सब मकीन आख़िर

घर भी मदफ़न बने हैं गलियाँ भी
तंग होने लगी ज़मीन आख़िर

तेरी चौखट से रह सके न अलग
संग-दर हो गई जबीन आख़िर

पा सके ख़ूँ-बहा दियत न क़िसास
ज़िंदगी के लवाहिक़ीन आख़िर

इश्क़ तस्ख़ीर-ए-काएनात के बा'द
हो रहा दिल में ही मकीन आख़िर

खेल तो ख़त्म हो चुका है 'रबाब'
क्यूँ रुके हैं तमाशबीन आख़िर