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मर्ग-ए-अग़्यार लब पे ला न सका | शाही शायरी
marg-e-aghyar lab pe la na saka

ग़ज़ल

मर्ग-ए-अग़्यार लब पे ला न सका

नसीम देहलवी

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मर्ग-ए-अग़्यार लब पे ला न सका
वो क़सम हूँ जो यार खा न सका

इस क़दर ज़ोफ़ था कि तेरा नाज़
थी तमन्ना मगर उठा न सका

मर के ठंडा कहीं न हो जाए
इस लिए वो मुझे जिला न सका

बुख़्ल देखो तो मेरी तुर्बत पर
एक आँसू भी वो गिरा न सका

उठ न जाए रक़ीब महफ़िल से
मुझ को पहलू में वो बिठा न सका

था जो अश्क-ए-अज़ीज़ ख़ातिर में
दीदा-ए-तर मुझे बहा न सका

हुस्न तेरा वो माह-ए-ताबाँ था
अब्र-ए-गेसू जिसे छुपा न सका

दार-ए-फ़ानी मक़ाम-ए-लग़्ज़िश है
कोई अपना क़दम जमा न सका

न मिला कोई वक़्त-ए-तन्हाई
हाल-ए-दिल यार को सुना न सका

जानता था पड़े रहेंगे वहीं
इस लिए यार घर बता न सका

न मना लड़ के वो बहुत चाहा
ऐसे बिगड़े कि फिर बना न सका

देख कर बद-दिमाग़ियाँ उन की
नामा-बर ख़त मिरा पढ़ा न सका

किस तरह अर्ज़-ए-मुद्दआ करता
ग़ैर को पास से हटा न सका

आरज़ू-मंद रह गया मजनूँ
मेरे आगे फ़रोग़ पा न सका

कीना शौक़-ए-रक़ीब था ऐ दोस्त
कि तबीअत से तेरी जा न सका

क्या नदामत हुई है क़ातिल से
नाज़-ए-ख़ंजर गुलू उठा न सका

ख़ौफ़ था ग़श उन्हें न आ जाए
मैं शिगाफ़-ए-जिगर दिखा न सका

ना-तवाँ था 'नसीम' इस दर्जा
कि वो ज़ंजीर-ए-पा हिला न सका