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मंज़िल सफ़र-ए-इश्क़ की ज़िन्हार न टूटे | शाही शायरी
manzil safar-e-ishq ki zinhaar na TuTe

ग़ज़ल

मंज़िल सफ़र-ए-इश्क़ की ज़िन्हार न टूटे

करामत अली शहीदी

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मंज़िल सफ़र-ए-इश्क़ की ज़िन्हार न टूटे
जब तक कमर-ए-क़ाफ़िला-सालार न टूटे

इस पंद से दिल नासेह-ए-दीं-दार न टूटे
बुत तोड़ने में का'बे की दीवार न टूटे

बे-फ़िक्र रहे बंद-ए-नक़ाब-ए-रुख़-ए-जानाँ
हम से कभी क़ुफ़्ल-ए-दर-ए-गुलज़ार न टूटे

जब तक न गवारा हो तुझे नज़्अ' की तल्ख़ी
परहेज़ तिरा ऐ दिल-ए-बीमार न टूटे

हर रोज़ हो जब सैकड़ों उश्शाक़ का चौरंग
ऐ शोख़ कहाँ तक तिरी तलवार न टूटे

सर पटकूँ जो दीवार से कहता है वो ज़ालिम
बस बस मिरे घर की कहीं दीवार न टूटे

बेजा है तिरी गर्मी-ए-बाज़ार का शिकवा
क्यूँ जिंस नई पा के ख़रीदार न टूटे

क़िस्मत में हो गो मंज़िल-ए-मक़्सद का पहुँचना
पर आबला-ए-पा में सर-ए-ख़ार न टूटे

आसाँ है 'शहीदी' की अगर दिल-शिकनी हो
पर शर्त ये है ख़ातिर-ए-अग़्यार न टूटे