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मंज़िल मिले बे-हौसला-ए-जाँ नहीं देखा | शाही शायरी
manzil mile be-hausla-e-jaan nahin dekha

ग़ज़ल

मंज़िल मिले बे-हौसला-ए-जाँ नहीं देखा

मोहम्मद अब्दुलहमीद सिद्दीक़ी नज़र लखनवी

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मंज़िल मिले बे-हौसला-ए-जाँ नहीं देखा
होते हुए ऐसा तो कभी हाँ नहीं देखा

ग़ैर आए गए फूल चुने बू भी उड़ाई
हम ऐसे कि अपना ही गुलिस्ताँ नहीं देखा

दामन भी सलामत है गरेबाँ भी सलामत
ऐ जोश-ए-जुनूँ तुझ को नुमायाँ नहीं देखा

हैं तेरे तसल्लुत में फ़ज़ाएँ भी ज़मीं भी
तुझ में ही मगर ज़ौक़-ए-सुलैमाँ नहीं देखा

है चश्म-ए-तसव्वुर भी ये दरमांदा-ओ-आजिज़
तुझ को कभी ऐ जल्वा-ए-पिन्हाँ नहीं देखा

एहसास-ए-ज़ियाँ वाए कि है रू-ब-तनज़्ज़ुल
कल था जो उसे आज पशेमाँ नहीं देखा

कितने ही सुख़न-वर-ओ-सुख़न-दाँ 'नज़र' ऐसे
जिन को कभी महफ़िल में ग़ज़ल-ख़्वाँ नहीं देखा