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मंज़िल है कठिन कम ज़ाद-ए-सफ़र मालूम नहीं क्या होना है | शाही शायरी
manzil hai kaThin kam zad-e-safar malum nahin kya hona hai

ग़ज़ल

मंज़िल है कठिन कम ज़ाद-ए-सफ़र मालूम नहीं क्या होना है

शौक़ बहराइची

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मंज़िल है कठिन कम ज़ाद-ए-सफ़र मालूम नहीं क्या होना है
और लंगड़ा अपाहिज है रहबर मालूम नहीं क्या होना है

ख़ाइफ़ न हो क्यूँ हर फ़र्द बशर मालूम नहीं क्या होना है
है वक़्त के हाथों में हंटर मालूम नहीं क्या होना है

देखा है ये अक्सर शाम ओ सहर रह-रौ तो है रह-रौ ख़ुद रहबर
हर गाम पे खाते हैं ठोकर मालूम नहीं क्या होना है

लफ़्ज़ों का बयाँ दिलकश दिलकश दुनिया-ए-अमल सूनी सूनी
स्कीमें हैं गट्ठर का गट्ठर मालूम नहीं क्या होना है

आज़ादी के फल रंगीं रंगीं खाने में बहुत मीठे मीठे
कीड़े हैं मगर अंदर अंदर मालूम नहीं क्या होना है

गर्मी-ए-मिज़ाज-ए-दोस्त का हम अंदाज़ा करें तो कैसे करें
बिगड़ा हुआ है थर्मामीटर मालूम नहीं क्या होना है

हैराँ हूँ कि इस गर्दूं के तले तंज़ीम की गाड़ी कैसे चले
पहिए में हज़ारों हैं पंचर मालूम नहीं क्या होना है

माली तो है कुछ रूठा रूठा और अहल-ए-चमन बिगड़े बिगड़े
बिजली की नज़र छप्पर छप्पर मालूम नहीं क्या होना है

गेसू हैं परेशाँ बुलबुल के और चाक गिरेबाँ हैं गुल के
पैनिक में है सब्ज़ा शाम ओ सहर मालूम नहीं क्या होना है

बे-लज़्ज़त कैफ़-ओ-मस्ती के मल्लाह भी हिम्मत हारे हैं
ख़ुश्की में फँसा है ऐम्बैसडर मालूम नहीं क्या होना है

है शैख़ की मिल्किय्यत काबा मीरास-ए-बरहमन बुत-ख़ाना
छाए हुए हर-सू हैं जोकर मालूम नहीं क्या होना है

फेरी हैं अहिब्बा ने आँखें बदले हैं अइज़्ज़ा ने तेवर
है 'शौक़' हर आराज़ी बंजर मालूम नहीं क्या होना है