मल ख़ून-ए-जिगर मेरा हाथों से हिना समझे
मैं और तो क्या कोसूँ पर तुम से ख़ुदा समझे
समझाने की जो बातें कीं मैं ने दिला तुझ से
ऐ अक़्ल की दुश्मन सो तेरी तो बला समझे
दिल में मिरे चुटकी ली ऐसी है कि दर्द उट्ठा
माक़ूल चे ख़ुश ऐ वाह आप इस को अदा समझे
ऐ बू-लहब-ए-नख़वत सीधे हैं अगर सच-मुच
तो आज से साहब को हम अपना चचा समझे
साहब ने न की यारी वहशत से परी से तो
ऐ शैख़-ए-जुनूँ तुम को हम ख़्वाजा-सरा समझे
हँगामा-ए-महशर भी गर सामने आया तो
उस को भी तमाशाई एक साँग नया समझे
वो दश्त-ए-मोहब्बत में रक्खे क़दम ऐ 'इंशा'
सर अपने को आगे ही जो तन से जुदा समझे
ग़ज़ल
मल ख़ून-ए-जिगर मेरा हाथों से हिना समझे
इंशा अल्लाह ख़ान