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मकीन को मकान से निकालिए | शाही शायरी
makin ko makan se nikaliye

ग़ज़ल

मकीन को मकान से निकालिए

सरफ़राज़ ज़ाहिद

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मकीन को मकान से निकालिए
ये नुक़्ता आसमान से निकालिए

हमारे साथ कीजिए मुकालिमा
तो ख़ुद को दरमियान से निकालिए

ख़ज़ाना रहने दीजिए ज़मीन में
हवस को दास्तान से निकालिए

नमी जगह बना रही है आँख में
ये तीर अब कमान से निकालिए

हमारी चुप को सुनते जाएँ ग़ौर से
हमारी बात कान से निकालिए

फ़ज़ाओं में पनप रही हैं साज़िशें
सो बाल-ओ-पर भी ध्यान से निकालिए

समय गुज़र रहा है साँस रोक कर
सदी को इम्तिहान से निकालिए

निकल न जाए बात दूसरी तरफ़
लकीर इक ज़बान से निकालिए

ख़राब हो रही है जिंस-ए-आरज़ू
ये माल अब दुकान से निकालिए