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मख़मूर चश्मों की तबरीद करने कूँ शबनम है सरदाब शोरों की मानिंद | शाही शायरी
maKHmur chashmon ki tabrid karne kun shabnam hai sardab shoron ki manind

ग़ज़ल

मख़मूर चश्मों की तबरीद करने कूँ शबनम है सरदाब शोरों की मानिंद

सिराज औरंगाबादी

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मख़मूर चश्मों की तबरीद करने कूँ शबनम है सरदाब शोरों की मानिंद
रूपे के थाले सफ़ेदी है नर्गिस की ज़र्दी है ज़र के कटोरों की मानिंद

दाराई-ए-सुर्ख़ इन जामा-ज़ेबों ने आशिक़ के लोहू से रंगीं किए हैं
बे-ख़ुद हो कहता हूँ क्या ख़ूब लगते हैं मेरे कलेजे के क़ोरों की मानिंद

ऐ दस्त-ए-मशाता तूँ जब सें पहूँचा है उस ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीं की शाना-कशी कूँ
आशिक़ की आहों के इन साफ़ रिश्तों में गिरहाँ हैं उँगली की पोरों की मानिंद

ये तंगी उन्हों के दहन की न पावेगा अपने गरेबाँ में सर को नवा तूँ
ऐ ग़ुंचा बाग़ी हो महताब-रूयों सीं मत ख़ंदा-पन कर चकोरों की मानिंद

दिल के ख़ज़ाने सें शायद लेजावेगा जी के जवाहर कूँ अय्यारियों सें
हर दम ख़याल उस का आँखों के रौज़न सीं आता है छुप-छुप कि चोरों की मानिंद

ग़म के पहाड़ों कूँ सर पर उठाए हैं वहशत के पंजों सीं आहों ने मेरी
दिल के अखाड़े में अब कौन हम-सर है उन पहलवानों के ज़ोरों की मानिंद

परवाना रंगों के उर्स-ए-जुदाई में सैर-ए-चराग़ाँ है जान-ए-'सिराज' आज
रौशन फ़तीले हैं आहों के शो'लों के सीने में कोरे सकोरों की मानिंद