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मख़्लूक़ हूँ या ख़ालिक़-ए-मख़्लूक़-नुमा हूँ | शाही शायरी
maKHluq hun ya Khaaliq-e-maKHluq-numa hun

ग़ज़ल

मख़्लूक़ हूँ या ख़ालिक़-ए-मख़्लूक़-नुमा हूँ

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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मख़्लूक़ हूँ या ख़ालिक़-ए-मख़्लूक़-नुमा हूँ
मालूम नहीं मुझ को कि मैं कौन हूँ क्या हूँ

हूँ शाहिद-ए-तंज़ीहा के रुख़्सार का पर्दा
या ख़ुद ही मुशाहिद हूँ कि पर्दे में छुपा हूँ

है मुझ से गरेबान-ए-गुल-ए-सुब्ह मोअत्तर
मैं इत्र-ए-नसीम-ए-चमन ओ बाद-ए-सबा हूँ

गोश-ए-शुन्वा हो तो मिरे रम्ज़ को समझे
हक़ ये है कि मैं साज़-ए-हक़ीक़त की नवा हूँ

हस्ती को मिरी हस्ती-ए-आलम न समझना
हूँ हस्त तो पर हस्ती-ए-आलम से जुदा हूँ

हूँ सीना-ए-उश्शाक में सोज़-ए-जिगर-ओ-दिल
और दीदा-ए-माशूक़ाँ में क्या नाज़-ओ-अदा हूँ

ये क्या है कि मुझ पर मिरा उक़्दा नहीं खुलता
हर-चंद कि ख़ुद उक़्दा ओ ख़ुद उक़्दा-कुशा हूँ

ऐ 'मुसहफ़ी' शानें हैं मिरी जल्वागरी में
हर रंग में मैं मज़हर-ए-आसार-ए-ख़ुदा हूँ