मैं ज़ोफ़ से जूँ नक़्श-ए-क़दम उठ नहीं सकता
बैठा हूँ सर-ए-ख़ाक पे जम उठ नहीं सकता
ऐ अश्क-ए-रवाँ साथ ले अब आह-ए-जिगर को
आशिक़ कहीं बे-फ़ौज-ओ-अलम उठ नहीं सकता
सक़्फ़-ए-फ़लक-ए-कोहना में क्या ख़ाक लगाऊँ
ऐ ज़ोफ़-ए-दिल इस आह का थम उठ नहीं सकता
सर मारका-ए-इश्क़ में आसाँ नहीं देना
गाड़े है जहाँ शम्अ क़दम उठ नहीं सकता
है जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ का किसी के जो तसव्वुर
दिल से ख़लिश-ए-ख़ार-ए-अलम उठ नहीं सकता
दिल पर है मिरे ख़ेमा-ए-हर-आबला अस्नाद
क्या कीजिए कि ये लश्कर-ए-ग़म उठ नहीं सकता
हर जा मुतजल्ला है वो बर पर्दा-ए-ग़फ़लत
ऐ मोतकिफ़-ए-दैर-ओ-हरम उठ नहीं सकता
यूँ अश्क ज़मीं पर हैं कि मंज़िल को पहुँच कर
जूँ क़ाफ़िला-ए-मुल्क-ए-अदम उठ नहीं सकता
रो रो के लिखा ख़त जो उसे मैं ने तो बोला
इक हर्फ़ सर-ए-काग़ज़-ए-नम उठ नहीं सकता
हर दम लब-ए-फ़व्वारा से जारी ये सुख़न है
पानी न ज़रा जिस में हो दम उठ नहीं सकता
मैं उठ के किधर जाऊँ ठिकाना नहीं कोई
मेरा तिरे कूचे से क़दम उठ नहीं सकता
मेहंदी तो सरासर नहीं पाँव में लगी है
तू बहर-अयादत जो सनम उठ नहीं सकता
बीमार तिरा सूरत-ए-तस्वीर-ए-निहाली
बिस्तर से तिरे सर की क़सम उठ नहीं सकता
मैं शाह-सवार आज हूँ मैदान-ए-सुख़न में
रुस्तम का मिरे आगे क़दम उठ नहीं सकता
क्या नेज़ा हिलावेगा कोई अब कि किसी से
याँ तौसन-ए-रहवार-ए-क़लम उठ नहीं सकता
जूँ ग़ुंचा 'नसीर' उस बुत-ए-गुल-रू की जो है याद
याँ सर हो गरेबाँ से बहम उठ नहीं सकता
ग़ज़ल
मैं ज़ोफ़ से जूँ नक़्श-ए-क़दम उठ नहीं सकता
शाह नसीर