मैं वो इक जिंस-ए-गिराँ हूँ सर-ए-बाज़ार कि बस
हाथ यूँ मिलते हैं हसरत से ख़रीदार कि बस
आज तक अहल-ए-वफ़ा से न किसी ने पूछा
और जारी रहे शुग़्ल-ए-रसन-ओ-दार कि बस
चिलचिलाती हुई ये धूप ये तपते मैदाँ
और इधर हौसला-ए-दिल का वो इसरार कि बस
आ गया यज़्दाँ को तरस आख़िर कार
इतना शर्मिंदा-ओ-नादिम था गुनहगार कि बस
शिद्दत-ए-शौक़ में हद से न गुज़र जाए कहीं
कोई कर दे दिल-ए-नादाँ को ख़बर-दार कि बस
जी यही कहता है अब चल के वहीं जा ठहरो
हम ने वीरानों में देखे हैं वो आसार कि बस
दौलत-ए-ऐश मिला करती है नादानों को
अहल-ए-इदराक जिया करते हैं यूँ ख़्वार कि बस
चुप ही इस दौर में रहिए तो मुनासिब है 'शमीम'
कान यूँ रखते हैं वर्ना दर-ओ-दीवार कि बस
ग़ज़ल
मैं वो इक जिंस-ए-गिराँ हूँ सर-ए-बाज़ार कि बस
मुबारक शमीम