मैं उस बुत का वस्ल ऐ ख़ुदा चाहता हूँ
मरज़ इश्क़ का है दवा चाहता हूँ
बयान-ए-मलाहत किया चाहता हूँ
सुख़न में नमक का मज़ा चाहता हूँ
न देखूँ मैं उस गुल के पहलू में काँटा
उड़े ग़ैर ऐसी हुआ चाहता हूँ
मुझे तस्मा-बंदी हो ऐ ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ
फ़क़ीर आज-कल मैं हुआ चाहता हूँ
लगी बे-तरह है ख़ुदा ही बचाए
सुलगता है दिल में जला चाहता हूँ
बहुत करवटें लीं नहीं नींद आती
बग़ल में कोई दिलरुबा चाहता हूँ
मोहब्बत में ये अक़्ल ज़ाइल हुई है
कि अहल-ए-दग़ा से वफ़ा चाहता हूँ
खुले हाल-ए-बीमार चश्म-ए-सुख़न-गो
इशारों में बातें किया चाहता हूँ
बुरा मान जाओगे मुँह फेर लोगे
न पूछो क़सम दे के क्या चाहता हूँ
निगाहें उलझती हैं ज़ुल्फ़ों में बे-ढब
उन आँखों के हाथों फँसा चाहता हूँ
मह-ए-नौ के मिसरे में मिसरे लगाऊँ
मैं इतनी तबीअत-रसा चाहता हूँ
हुए चारा-जू कब मरीज़-ए-मोहब्बत
ख़ुदा मौत दे जो शिफ़ा चाहता हूँ
वही दुश्मन-ए-जाँ है ऐ 'बहर' मेरा
जिसे जान से मैं सिवा चाहता हूँ
ग़ज़ल
मैं उस बुत का वस्ल ऐ ख़ुदा चाहता हूँ
इमदाद अली बहर