मैं उम्र के रस्ते में चुप-चाप बिखर जाता
इक दिन भी अगर अपनी तन्हाई से डर जाता
मैं तर्क-ए-तअल्लुक़ पर ज़िंदा हूँ सो मुजरिम हूँ
काश उस के लिए जीता अपने लिए मर जाता
उस रात कोई ख़ुश्बू क़ुर्बत में नहीं जागी
मैं वर्ना सँवर जाता और वो भी निखर जाता
उस जान-ए-तकल्लुम को तुम मुझ से तो मिलवाते
तस्ख़ीर न कर पाता हैरान तो कर जाता
कल सामने मंज़िल थी पीछे मिरी आवाज़ें
चलता तो बिछड़ जाता रुकता तो सफ़र जाता
मैं शहर की रौनक़ में गुम हो के बहुत ख़ुश था
इक शाम बचा लेता इक रोज़ तो घर जाता
महरूम फ़ज़ाओं में मायूस नज़ारों में
तुम 'अज़्म' नहीं ठहरे मैं कैसे ठहर जाता
ग़ज़ल
मैं उम्र के रस्ते में चुप-चाप बिखर जाता
अज़्म बहज़ाद