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मैं सरापा मज़हर-ए-इस्म-ए-ख़ुदा वल्लाह हूँ | शाही शायरी
main sarapa mazhar-e-ism-e-KHuda wallah hun

ग़ज़ल

मैं सरापा मज़हर-ए-इस्म-ए-ख़ुदा वल्लाह हूँ

ख़्वाज़ा मोहम्मद वज़ीर लखनवी

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मैं सरापा मज़हर-ए-इस्म-ए-ख़ुदा वल्लाह हूँ
हम-सफ़ीरो इस चमन में मुर्ग़-ए-बिस्मिल्लाह हूँ

किस तरफ़ जाऊँ दिखा दो या मोहम्मद राह-ए-हक़
याँ हर इक गुमराह कहता है मैं ख़िज़्र-ए-राह हूँ

ऐ मसीहा तेरी ज़ुल्फ़ों की दराज़ी देख कर
कहती ही उम्र-ए-ख़िज़र मैं गेसू-ए-कोताह हूँ

आसमाँ पर भी सियह-बख़्ती में है मेरा दिमाग़
ख़ाल-ए-रू-ए-मेहर हूँ दाग़-ए-जबीन-ए-माह हूँ

कह रही है आसमाँ से यार के घर की ज़मीं
तूर हूँ सहरा-ए-ऐमन हूँ तजल्ली-गाह हूँ

बैठना कैसा इधर आया उधर राही हुआ
दिन जो हूँ तो मुख़्तसर हूँ शब जो हूँ कोताह हूँ

अल्लाह अल्लाह क्या है इन के पाँव की ठोकर का लुत्फ़
है हर इक बुत की तमन्ना काश संग-ए-राह हूँ

रोज़-ए-महशर से 'वज़ीर' अफ़्ज़ूँ है इस काफ़िर का तूल
अब भी कहती है शब-ए-फ़ुर्क़त बहुत कोताह हूँ