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मैं पहरों घर में पड़ा दिल से बात करता हूँ | शाही शायरी
main pahron ghar mein paDa dil se baat karta hun

ग़ज़ल

मैं पहरों घर में पड़ा दिल से बात करता हूँ

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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मैं पहरों घर में पड़ा दिल से बात करता हूँ
जब उस के शक्ल-ओ-शमाइल से बात करता हूँ

ब-वक़्त-ए-ज़ब्ह भी हिलते रहें हैं लब मेरे
ज़ि-बस-कि ख़ंजर-ए-क़ातिल से बात करता हूँ

मिरी ज़बाँ को मिरा हम-नवा ही समझे है
मैं नीम ज़ब्ह हूँ बिस्मिल से बात करता हूँ

न नाक़ा और न महमिल रहा मैं सौदाई
हनूज़ नाक़ा ओ महमिल से बात करता हूँ

है इन दिनों मिरी आवाज़ में यहाँ तक ज़ोफ़
कि अपने साथ भी मुश्किल से बात करता हूँ

समझ न मौज मिरे मुँह में हैं हज़ारों ज़बाँ
मैं बहर हूँ लब-ए-साहिल से बात करता हूँ

मज़ा मिले है मुझे उस की हम-कलामी का
मैं उस के दर के जो साइल से बात करता हूँ

ब-वक़्त-ए-आईना दीदन बुलाऊँ मैं तो कहे
मैं अपने आशिक़-ए-माइल से बात करता हूँ

जो 'मुसहफ़ी' की सिफ़ारिश करें तो बोले वो शोख़
मैं ऐसे नंग-ए-क़बाइल से बात करता हूँ