मैं पा-शिकस्ता कहाँ तिफ़्ल-ए-नय सवार कहाँ
फिर उस की गर्द कहाँ और मिरा ग़ुबार कहाँ
तुम्हारे वस्ल से ठहरेगा ये दिल-ए-बे-ताब
बग़ैर आइना सीमाब को क़रार कहाँ
बहुत दिनों से हूँ आमद का अपनी चश्म-ब-राह
तुम्हारा ले गया ऐ यार इंतिज़ार कहाँ
जो सर्द-मेहरी से ठंडा हो उस के ऐ मह-रू
रगों में ख़ून कहाँ नब्ज़ में बुख़ार कहाँ
निकल के सीने से जा पहुँचे तूर-ए-सीना पर
गई चमकने मिरी आह-ए-पुर-शरार कहाँ
जो समझें तेरे दम-ए-तेग़ को तरीक़ अपना
बता दे दहर में हैं ऐसे सर-गुज़ार कहाँ
फ़लक की सुल्ह को समझे रहो 'वक़ार' जिदाल
बने भी दोस्त जो दुश्मन तो ए'तिबार कहाँ
ग़ज़ल
मैं पा-शिकस्ता कहाँ तिफ़्ल-ए-नय सवार कहाँ
किशन कुमार वक़ार

