मैं ने जब हद से गुज़रने का इरादा कर लिया
मंज़िल-ए-दुश्वार को तय पा-पियादा कर लिया
बे-हक़ीक़त हो गए मेरी नज़र में मेहर-ओ-माह
मैं ने जब घर के दिए से इस्तिफ़ादा कर लिया
आँसुओं ने ग़म को उर्यां कर दिया होता मगर
दिल की ग़ैरत ने तबस्सुम को लबादा कर लिया
अम्न की सब शाहराहें तंग हो कर रह गईं
हादसों ने रास्ता कितना कुशादा कर लिया
उम्र भर 'आज़िम' रहेगा नश्शा-ए-ग़म का ख़ुमार
आँख को पैमाना-ए-ख़ूँ दिल को बादा कर लिया
ग़ज़ल
मैं ने जब हद से गुज़रने का इरादा कर लिया
ऐनुद्दीन आज़िम