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मैं मो'तबर हूँ इश्क़ मिरा मो'तबर नहीं | शाही शायरी
main moatabar hun ishq mera moatabar nahin

ग़ज़ल

मैं मो'तबर हूँ इश्क़ मिरा मो'तबर नहीं

फ़ारूक़ अंजुम

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मैं मो'तबर हूँ इश्क़ मिरा मो'तबर नहीं
आँखों में अश्क-ए-ग़म नहीं नेज़े पे सर नहीं

कुछ नक़्श रह गए हैं बुज़ुर्गों की शान के
अब शहर-ए-आरज़ू में किसी का भी घर नहीं

हमराह चाँद के तो सितारों का है हुजूम
सूरज के साथ कोई शरीक-ए-सफ़र नहीं

बदली हुई फ़ज़ा है ग़ज़ल के मकान की
चंगेज़-ख़ाँ के शहर में 'ग़ालिब' का घर नहीं

छत आसमान है तो बिछौना ज़मीन है
अपने मकान में कहीं दीवार-ओ-दर नहीं

नाकामियों पे नीम चबाने लगे हैं लोग
'अंजुम' ये ज़िंदगानी है ख़्वाबों का घर नहीं