EN اردو
मैं मंज़र हूँ पस-ए-मंज़र से मेरा रिश्ता बहुत | शाही शायरी
main manzar hun pas-e-manzar se mera rishta bahut

ग़ज़ल

मैं मंज़र हूँ पस-ए-मंज़र से मेरा रिश्ता बहुत

कृष्ण कुमार तूर

;

मैं मंज़र हूँ पस-ए-मंज़र से मेरा रिश्ता बहुत
आख़िर मेरी पेशानी पर सूरज चमका बहुत

जाने कौन से इस्म-ए-अना के हम ज़िंदानी थे
तेरे नाम को ले कर हम ने ख़ुदा को चाहा बहुत

उन से क्या रिश्ता था वो क्या मेरे लगते थे
गिरने लगे जब पेड़ से पत्ते तो मैं रोया बहुत

कैसी मसाफ़त सामने थी और सफ़र था कैसा लहू
मैं ने उस को उस ने मुझ को मुड़ के देखा बहुत

किस के दस्त-ए-सवाल में है इक लम्बी चुप का चराग़
झाँकता है क्यूँ इक खिड़की से कोई चेहरा बहुत

है दरिया के लम्स पे नाज़ाँ इक काग़ज़ की नाव
सूरज से बातें करता है एक दरीचा बहुत

सारी उम्र किसी की ख़ातिर सूली पे लटका रहा
शायद 'तूर' मेरे अंदर इक शख़्स था ज़िंदा बहुत