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मैं किसी की रात का तन्हा चराग़ | शाही शायरी
main kisi ki raat ka tanha charagh

ग़ज़ल

मैं किसी की रात का तन्हा चराग़

शुमाइला बहज़ाद

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मैं किसी की रात का तन्हा चराग़
इतना सुनना था कि फिर महका चराग़

ताक़-ए-जाँ की गुल हुई अफ़्सुर्दगी
आस ने उम्मीद का रक्खा चराग़

अंदरून-ए-ज़ात तक खुलता हुआ
जिस्म के जंगल में इक उगता चराग़

दो सितारे जड़ के यकजा हो गए
आख़िर-ए-शब डूब कर उभरा चराग़

ख़्वाब में दोनों ने देखी रौशनी
नींद में मिल बाँट कर ढूँडा चराग़

तीरगी के दाएरे में रख गया
एक साया आ के फिर जलता चराग़

साहिलों की नज़र कर आई हवा
मिन्नतों का एक मन-चाहा चराग़

लो कोई तज्सीम कर पाया कहाँ
मोम बन कर रात-भर पिघला चराग़

नीम-वा आँखों से मुझ को देख कर
गुल हुआ जाता है इक बूढ़ा चराग़