मैं कहाँ हूँ कुछ बता दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
फिर सदा अपनी सुना दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
सो गए इक एक कर के ख़ाना-ए-दिल के चराग़
इन चराग़ों को जगा दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
वो बिसात-ए-शेर-ओ-नग़्मा रतजगे वो चहचहे
फिर वही महफ़िल सजा दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
जिस के हर क़तरे से रग रग में मचलता था लहू
फिर वही इक शय पिला दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
अब तो याद आता नहीं कैसा था अपना रंग-रूप
फिर मिरी सूरत दिखा दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
एक मुद्दत हो गई रूठा हूँ अपने-आप से
फिर मुझे मुझ से मिला दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
जाने बरगश्ता है क्यूँ मुझ से ज़माने की हवा
अपने दामन की हवा दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
रच गया है मेरी नस नस में मिरी रातों का ज़हर
मेरे सूरज को बुला दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
ग़ज़ल
मैं कहाँ हूँ कुछ बता दे ज़िंदगी ऐ ज़िंदगी!
ख़लील-उर-रहमान आज़मी

