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मैं जिस के साथ 'ज़फ़र' उम्र भर उठा बैठा | शाही शायरी
main jis ke sath zafar umr bhar uTha baiTha

ग़ज़ल

मैं जिस के साथ 'ज़फ़र' उम्र भर उठा बैठा

साबिर ज़फ़र

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मैं जिस के साथ 'ज़फ़र' उम्र भर उठा बैठा
वो जाने आज है क्यूँ अजनबी बना बैठा

शिकायत उस से नहीं अपने-आप से है मुझे
वो बेवफ़ा था तो मैं आस क्यूँ लगा बैठा

जो मेरे वास्ते बुनियाद था मोहब्बत की
मैं उस ख़याल की दीवार ही गिरा बैठा

बुलंद परचम-ए-अज़्म-ए-सफ़र मैं क्या रखता
मिरे क़रीब ही मेरा ग़ुबार आ बैठा

समाअतों की फ़सीलों पे ऐसा पहरा था
कि फ़ड़फ़ड़ाता हुआ ताइर-ए-सदा बैठा

मिला वो रात मुझे महफ़िल-ए-मसर्रत में
तो मैं अदब से नहीं दुख से दूर जा बैठा

'ज़फ़र' बताओ उसे हाथ क्या लगा सकता
जिसे मैं देख के बीनाई ही गँवा बैठा