मैं जिस के साथ 'ज़फ़र' उम्र भर उठा बैठा
वो जाने आज है क्यूँ अजनबी बना बैठा
शिकायत उस से नहीं अपने-आप से है मुझे
वो बेवफ़ा था तो मैं आस क्यूँ लगा बैठा
जो मेरे वास्ते बुनियाद था मोहब्बत की
मैं उस ख़याल की दीवार ही गिरा बैठा
बुलंद परचम-ए-अज़्म-ए-सफ़र मैं क्या रखता
मिरे क़रीब ही मेरा ग़ुबार आ बैठा
समाअतों की फ़सीलों पे ऐसा पहरा था
कि फ़ड़फ़ड़ाता हुआ ताइर-ए-सदा बैठा
मिला वो रात मुझे महफ़िल-ए-मसर्रत में
तो मैं अदब से नहीं दुख से दूर जा बैठा
'ज़फ़र' बताओ उसे हाथ क्या लगा सकता
जिसे मैं देख के बीनाई ही गँवा बैठा
ग़ज़ल
मैं जिस के साथ 'ज़फ़र' उम्र भर उठा बैठा
साबिर ज़फ़र