मैं इस हिसार से निकलूँ तो और कुछ सोचूँ
तुम्हारे प्यार से निकलूँ तो और कुछ सोचूँ
तिरी गली के अलावा भी और क़र्ये हैं
जो इस दयार से निकलूँ तो और कुछ सोचूँ
तुम्हारे हिज्र की सदियाँ तुम्हारे वस्ल के दिन
मैं इस शुमार से निकलूँ तो और कुछ सोचूँ
रचा हुआ है तिरा इश्क़ मेरी पोरों में
मैं इस ख़ुमार से निकलूँ तो और कुछ सोचूँ
ये मेरा जिस्म कि मातम सराए हसरत है
मैं इस मज़ार से निकलूँ तो और कुछ सोचूँ
ये मुझ में कौन मिरे रात दिन सँभालता है
इस इख़्तियार से निकलूँ तो और कुछ सोचूँ
तुम्हारे जिस्म की ख़ुश्बू ने कर दिया मसहूर
इस आबशार से निकलूँ तो और कुछ सोचूँ
ये बे-क़रारी मिरी रूह का उजाला है
मैं इस क़रार से निकलूँ तो और कुछ सोचूँ

ग़ज़ल
मैं इस हिसार से निकलूँ तो और कुछ सोचूँ
वसी शाह