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मैं ही इक शख़्स था यारान-ए-कुहन में ऐसा | शाही शायरी
main hi ek shaKHs tha yaran-e-kuhan mein aisa

ग़ज़ल

मैं ही इक शख़्स था यारान-ए-कुहन में ऐसा

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

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मैं ही इक शख़्स था यारान-ए-कुहन में ऐसा
कौन आवारा फिरा कूचा-ए-फ़न में ऐसा

हम भी जब तक जिए सरसब्ज़ ही सरसब्ज़ रहे
वक़्त ने ज़हर उतारा था बदन में ऐसा

ज़िंदगी ख़ुद को न इस रूप में पहचान सकी
आदमी लिपटा है ख़्वाबों के कफ़न में ऐसा

हर ख़िज़ाँ में जो बहारों की गवाही देगा
हम भी छोड़ आए हैं इक शोला चमन में ऐसा

लोग मुझ को मिरे आहंग से पहचान गए
कौन बदनाम रहा शहर-ए-सुख़न में ऐसा

अपने मंसूरों को इस दौर ने पूछा भी नहीं
पड़ गया रख़्ना सफ़-ए-दार-ओ-रसन में ऐसा

है तज़ादों भरी दुनिया भी हम-आहंग बहुत
फ़ासला तो नहीं कुछ संग ओ समन में ऐसा

वक़्त की धूप को माथे का पसीना समझा
मैं शराबोर रहा दिल की जलन में ऐसा

तुम भी देखो मुझे शायद तो न पहचान सको
ऐ मिरी रातो में डूबा हूँ गहन में ऐसा