मैं डरा नहीं मैं दबा नहीं में झुका नहीं मैं बिका नहीं
मगर अहल-ए-बज़्म में कोई भी तो अदा-शनास-ए-वफ़ा नहीं
मिरे जिस्म-ओ-जाँ पे उसी के सारे अज़ाब सारे सवाब हैं
वही एक हर्फ़-ए-ख़ुद-आगही कि अभी जो मैं ने कहा नहीं
न वो हर्फ़-ओ-लफ़्ज़ की दावरी न वो ज़िक्र ओ फ़िक्र-ए-क़लंदरी
जो मिरे लहू से लिखी थी ये वो क़रारदाद-ए-वफ़ा नहीं
अभी हुस्न ओ इश्क़ में फ़ासले अदम-ए'तिमाद के हैं वही
उन्हें ऐतबार-ए-वफ़ा नहीं मुझे ऐतबार-ए-जफ़ा नहीं
वो जो एक बात थी गुफ़्तनी वही एक बात शुनीदनी
जिसे मैं ने तुम से कहा नहीं जिसे तुम ने मुझ से सुना नहीं
मैं सलीब-ए-वक़्त पे कब से हूँ मुझे अब तो इस से उतार लो
कि सज़ा भी काट चुका हूँ मैं मिरा फ़ैसला भी हुआ नहीं
मिरा शहर मुझ पे गवाह है कि हर एक अहद-ए-सियाह में
वो चराग़-ए-राह-ए-वफ़ा हूँ मैं कि जला तो जल के बुझा नहीं

ग़ज़ल
मैं डरा नहीं मैं दबा नहीं में झुका नहीं मैं बिका नहीं
ख़ालिद अलीग