मैं चाहूँ भी तो ज़ब्त-ए-गुफ़्तुगू मैं ला नहीं सकता 
समझने पर भी दिल का मुद्दआ' समझा नहीं सकता 
भला ऐसी तही-दामाँ तमन्नाओं से क्या हासिल 
बहलने पर दिल आमादा है और बहला नहीं सकता 
ख़ुदा महफ़ूज़ रक्खे ख़ौफ़-ए-आसेब-ए-असीरी से 
मैं गुलशन में भी आज़ादी का नग़्मा गा नहीं सकता 
रग-ए-गुल से भी नाज़ुक-तर हैं तिनके आशियाने के 
इन्हें गुलचीं हर अंदाज़-ए-नवाज़िश भा नहीं सकता 
भरा जाएगा कब तक ख़ून-ए-माज़ी नब्ज़-ए-फ़र्दा में 
अब इस पहलू पे नज़्म-ए-क़ल्ब-ए-गेती आ नहीं सकता 
किसे फ़ित्ना समझ कर अपनी महफ़िल से उठाता है 
ज़मीर-ए-अम्न इस धोके में नादाँ आ नहीं सकता 
सहाब-ए-फ़िक्र भी 'याक़ूब' पाबंद-ए-फ़ज़ा निकला 
चमन की ख़ाक पर रंग-ए-सुख़न बरसा नहीं सकता
        ग़ज़ल
मैं चाहूँ भी तो ज़ब्त-ए-गुफ़्तुगू मैं ला नहीं सकता
याक़ूब उस्मानी

