मैं चाहता हूँ कि हर शय यहाँ सँवर जाए
तुम्हारी रूह मिरी रूह में उतर जाए
वो इक ख़याल जो थोड़ा मलाल जैसा है
तिरे क़रीब से गुज़रे अगर निखर जाए
दहक रहा है जो मुझ में अलाव बरसों से
ज़रा सा आँख में भर ले कोई तो मर जाए
ज़माने-भर से वो बेगाना हो ही जाएगा
कोई हयात की मानिंद जब मुकर जाए
वो एक ख़्वाब जिसे गुनगुनाता रहता हूँ
कभी तो आ के मिरी आँख में ठहर जाए
फिर उस के बा'द मैं सोचूँगा अपने होने का
जो दरमियान है लम्हा ज़रा निथर जाए
कभी हमीद बुलाए कभी उसे 'साजिद'
अकेला चाँद बताओ किधर किधर जाए
ग़ज़ल
मैं चाहता हूँ कि हर शय यहाँ सँवर जाए
साजिद हमीद