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मैं बहारों के रूप में गुम था | शाही शायरी
main bahaaron ke rup mein gum tha

ग़ज़ल

मैं बहारों के रूप में गुम था

सहबा अख़्तर

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मैं बहारों के रूप में गुम था
जब तुझे मुझ से कुछ तबस्सुम था

था वो अपने ही ख़ौफ़ का महकूम
जिस की आवाज़ में तहक्कुम था

वस्ल तेरा रहा न राज़ कि सुब्ह
दर-ओ-दीवार पर तबस्सुम था

मेरे शे'रों में ढल सका न कभी
जो मिरी रूह में तरन्नुम था

मैं पयम्बर न था मगर मुझ से
माह-ओ-ख़ुरशीद को तकल्लुम था

सब बहाने थे कूचा-गर्दी के
कौन तेरी तलाश में गुम था

मेरा साहिल न बन सका 'सहबा'
मेरी फ़ितरत में जो तलातुम था