मैं बहारों के रूप में गुम था
जब तुझे मुझ से कुछ तबस्सुम था
था वो अपने ही ख़ौफ़ का महकूम
जिस की आवाज़ में तहक्कुम था
वस्ल तेरा रहा न राज़ कि सुब्ह
दर-ओ-दीवार पर तबस्सुम था
मेरे शे'रों में ढल सका न कभी
जो मिरी रूह में तरन्नुम था
मैं पयम्बर न था मगर मुझ से
माह-ओ-ख़ुरशीद को तकल्लुम था
सब बहाने थे कूचा-गर्दी के
कौन तेरी तलाश में गुम था
मेरा साहिल न बन सका 'सहबा'
मेरी फ़ितरत में जो तलातुम था

ग़ज़ल
मैं बहारों के रूप में गुम था
सहबा अख़्तर