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मैं और हम-आग़ोश हूँ उस रश्क-ए-परी से | शाही शायरी
main aur ham-aghosh hun us rashk-e-pari se

ग़ज़ल

मैं और हम-आग़ोश हूँ उस रश्क-ए-परी से

रंजूर अज़ीमाबादी

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मैं और हम-आग़ोश हूँ उस रश्क-ए-परी से
कब इस की तवक़्क़ो मुझे बे-बाल-ओ-परी से

जागेंगे नसीब अपने न आह-ए-सहरी से
आगाह हैं उस आह की हम बे-असरी से

है वस्ल की ख़्वाहिश तुझे उस रश्क-ए-परी से
हैराँ हूँ मैं ऐ दिल तिरी बेहूदा-सरी से

ईमान में ज़ाहिद के भी आ जाए तज़लज़ुल
देखे जो मिरा बुत उसे काफ़िर-नज़री से

इन आँखों के रस्ते से मिरे दिल में चले आए
इस तरह ग़रज़ पहुँचे वो ख़ुश्की में तरी से

क़ासिद से न बर्दाश्त हुए उन के मज़ालिम
बाज़ आया वो आख़िर मिरी पैग़ाम-बरी से

आँचल की हवा दे कोई इस ग़ुंचा-ए-दिल को
वा हो नहीं सकता ये नसीम-ए-सहरी से

ये शीशा-ए-दिल दें तो हम ऐ तिफ़्ल-ए-परी-रू
पर इस में न बाल आए तिरी बे-हुनरी से

होश उड़ गए जाता रहा क़ाबू से दिल अपना
आँखें जो मिरी चार हुईं एक परी से

कब हाथ उठा कर मैं दुआ वस्ल की माँगूँ
फ़ुर्सत है जुनूँ में कब इन्हें जामा-ज़री से

बाज़ू भी हिलाए बहुत और पाँव भी पटके
पर उड़ न सकी चाल तिरी कब्क-ए-दरी से

'रंजूर' न होगा मरज़-ए-इश्क़ से जाँ-बर
ऐ चारागर अब हाथ उठा चारागरी से