मैं अपने हिस्से की तन्हाई महफ़िल से निकालूँगा
जो ला-हासिल ज़रूरी है तो हासिल से निकालूँगा
मिरे ख़ूँ से ज़्यादा तू मिरी मिट्टी में शामिल है
तुझे दिल से निकालूँगा तो किस दिल से निकालूँगा
मुझे मालूम है इक चोर दरवाज़ा अक़ब में है
मगर इस बार मैं रस्ता मुक़ाबिल से निकालूँगा
शबीहों की तरह क़ब्रें मुझे आवाज़ देती हैं
मैं अक्स-ए-रफ़्तगां आईना-ए-गुल से निकालूँगा
हुजूम-ए-सहल-अँगाराँ मिरे हमराह चलता है
मैं जैसे राह-ए-आसाँ राह-ए-मुश्किल से निकालूँगा
भरम सब खोल के रख दूँगा मसनूई मोहब्बत के
कोई ताज़ा फ़साना दश्त-ओ-महमिल से निकालूँगा
तुम्हें अब तैरना ख़ुद सीख लेना चाहिए 'शाहिद'
तुम्हें कब तक मैं गिर्दाब-ए-मसाएल से निकालूँगा
ग़ज़ल
मैं अपने हिस्से की तन्हाई महफ़िल से निकालूँगा
शाहिद ज़की