मैं अपने आप को रोकूँ कहाँ तक
फ़ुग़ाँ जाती है मेरी ला-मकाँ तक
तिरे क़दमों की आहट गूँजती है
वहीं तक मैं गई हूँ तू जहाँ तक
नज़ारा भी हसीं था क़ुर्बतों का
धनक फैली ज़मीं से आसमाँ तक
जहाँ पे तीरगी भी रौशनी हो
कभी देखा है तुम ने क्या वहाँ तक
ग़ज़ल
मैं अपने आप को रोकूँ कहाँ तक
नील अहमद